Wednesday 26 February 2014

क्या संत वैलेंटाइन से कम हैं दशरथ मांझी !

आज दशरथ मांझी बड़ा नाम है बिहार का।  बहुत बड़ा नाम है दशरथ मांझी का मेरी नजरों में।  ना केवल बड़ा बल्कि पवित्र भी, उत्साहवर्धक भी, सभ्य भी और सामाजिक और पारिवारिक  संस्कार से लबरेज भी. किसी भी पत्नी को  ऐसे प्रेम प्रदर्शन और उसकी आपूर्ति पर नाज होगा, उसके खिलाफ न तो कोई खाप खड़ा होगा, ना ही कोई फतवा देगा,, ना ही कोई हिकारत की नजर से देखेगा ना ही कोई ईर्ष्या  करेगा। 






सभी में श्रद्धा का भाव होगा, दुनिया भर की तमाम पत्नियां किसी शाहजहां जैसे पति की कल्पना ना कर के दशरथ मांझी की कल्पना करेंगी जिसने अपनी पत्नी के लिए ना तो राज्य की  दौलत और असंख्य श्रम को उछाह कर के और शायद कुछेक का हाथ काटकर एक विश्व विख्यात प्रेम के प्रतिक ताज महल का जन्मदाता  बनता है बल्कि दो दशको से ज्यादा समय तक अकेले अथक परिश्रम कर दिन-रात अपने ऐंडी का पसीना माथे तक पंहुंचा के एक अटल पाषाण को चकनाचूर कर के रास्ता बनाता  है कि उसकी पत्नी आराम से पानी भर के ला सके. 

बिहार सदियों से ऐसे महान पुरुषों और व्यक्तित्वों की गाथा रचता रहा है लेकिन ये उन सबसे अलग हटकर है जो सत्ता के लिए नहीं बल्कि अपनी पत्नी के लिए ऐसा अभूतपूर्व कार्य करता है जो सामान्य तो क्या असाधारण की सोच से भी परे है.

प्रख्यात और संवेदनशील अभिनेता आमिर खान ने एक नेक काम किया है दशरथ मांझी को श्रद्धांजलि देकर। वैसे देशभक्ति पर भाषण देने वाले बहुत हैं मिलेनियम स्टार से लेकर "भगवन" तक, लेकिन कौन जाता है सबसे गरीब-पिछड़े राज्य के उस गंदे कुचैले गाँव में. आमिर खान ने उसे गरीबों का ताल महल कहा है दरअसल मै उसे ताजमहल से ज्यादा भव्य और प्रेम के सौंदर्य से लबालब  मानता हूँ. ह्रदय की सम्पन्नता कहाँ इतनी होगी शाहजहां में जितना की दशरथ मांझी में थी. हाँ बिहार सरकार जरुर गरीब और बिपन्न है जो इसकी प्रेम सम्पदा और प्रतीक को दुनिया के सामने ठीक से नहीं रख पा रही है जिसे आमिर खान अपने शो में रखने जा रहे हैं. बिहार की सरकारें सदैव इस मामले में अदूरदर्शी और विपन्न रहीं हैं जिसे कभी भी अपनी पोटली में पड़े रत्नों की जानकारी नहीं हो पाती जिसे सदैव बहरी लोग ले जाते हैं.


केसरिया स्तूप और अशोक के शिलालेखों से ज्यादा लोग आते इस एकलौते "पाषाणमर्दक" प्रेमी को देखने। लेकिन किसे परवाह है भला. इसकी महता को ठीक से सम्मानित नहीं किया ना ही सरकार ने और न ही स्थानीय समाज ने. यहीं मांझी अगर धनाढ्य और "धुरंधर" परिवार के होते तो शायद बिहारी संभ्रांत जन इसके लिए न जाने क्या-क्या मांग कर बैठते। लेकिन गरीबी में खिले प्रेम के कमल से सुगंध तो उन्हें आने से रही. वैसे नितीश कुमार ने उन्हें सम्मानित करते हुए अपनी कुर्शी तक पर बिठाया था लेकिन इतना काफी नहीं है. उनकी जगह मै होता तो उसे भव्यता और कोमलता दोनों प्रदान कर के उसे बिहार का एक मशहूर दर्शनीय स्थल व पर्यटन के रूप में विकसित करता। 

यह केवल आमिर खान के आने तक नहीं रुके बल्कि इसके आगे भी जाना चाहिए। पति-पत्नी के निश्छल प्रेम के अभूतपूर्व प्रतिक के रूप में इसे रखा जा सकता है।मांझी ने पत्नी के मृत्यु के पश्चात् भी पहाड़ का 360 फ़ीट लंबा और 30 फ़ीट चौड़ा हिस्सा काट कर रास्ता बनाना जारी रखा था. पति-पत्नी के उत्कट प्रेम की अभिव्यंजना के रूप में तो इसे बिहार सरकार पेश कर ही सकती है। दशरथ मांझी के समाधी स्थल के पास पार्क विकसित किया जा सकता है। प्रेम के वैश्विक पुजारी कम से कम दुनिया भर से इसे देखने तो आ ही सकते हैं। और बिहार की जनता बड़े गर्व से कह सकती है कि देखो यूरोपीय लोगों तुम्हारे पास संत वैलेंटाइन हैं तो हमारे पास भी एक दशरथ मांझी है। 

Saturday 27 July 2013

नवसिखुआ फोटोग्राफर राजेश्वर







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Sunday 15 April 2012

निर्मल पहले सबल अब निर्बल ..आखिर क्यों !!!


कुछ दिनों से तमाम चैनलों पर निर्मल नरूला "बाबा" की लोकप्रियता अब बिना किसी भुगतान के उनकी चर्चा कर उन्हें अलोकप्रिय बनाने कि कोशिश सर्वत्र हो रही है. पहले तो चैनलों पर समय खरीदना होता होगा पर अब मुफ्त में हो रहा है.आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ! अचानक ही दो तीन हप्तों से लोगों में कुछ लोगों में और कुछ चैनलों में "साइअन्टिफिक टेम्परामेंट" जग गया है. नहीं मालूम पहले इस टेम्परामेंट को कुम्भकर्णी नींद क्यों आ गयी थी अब एक अभियान सा चल पड़ा है सबल लिए जा चुके निर्मल को निर्बल बनाने की. और निर्मल अकेला ऐसा प्राणी तो है नहीं कि ये तो गली मोहल्ले से लेकर राजधानियों तक टेंट से लेकर स्वर्गनुमा महल लगाये अपनी ज्ञान की फैक्ट्री चला रहे हैं साथ साथ बिना लाइसेंस टकसाल भी खोल लिया है. फिर प्रश्न पैदा होता है कि अकेले निर्मल को ही क्यों निर्बल बनाया जा रहा है. अब संविधान से लेकर अन्धविश्वास तक सारी चेतनाएं प्रबलता से दिल दिमाग में आ रही हैं, इनमे से कई लोग जो पहले सांस्थानिक स्तर पर ज्योतिषियों के लिए स्कूल और  कॉलेज खुलवाए थे और तभी से ही चैनलों पर "डेकोरेटेड आइटम" के रूप में बाबाओं के दर्शन होने लगे. बहुत पहले इण्डिया टुडे ने सत्यसाईं बाबा पर एक अंक प्रकाशित किया था जिनके यहाँ  राष्ट्रपति से लेकर कई मंत्रियों तक ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी थी.  उसी अंक में यह भी था कि उनके कुछ यूरोपियन अनुयायियों ने उनके खिलाफ मामला भी दर्ज कराया था क्योंकि सत्यसाई बाबा अपने दावे पर खरे नहीं उतरे थे साथ ही उनके विदेशी चेलों का विश्वास भंग हुआ था. अब ये समझ नहीं आता कि उस समय "टेम्परामेंट" क्यों पंक्चर होगया था. आशाराम बापू भी बड़े विवादों में रहे हैं लेकिन वे अन्धविश्वास के दोषी नहीं पाए गए उनपर इतना लंबा और जबरदस्त अभियान नहीं चलाया गया.
                                                        ऐसा लगता है कि बाबा निर्मल ने बड़ी निर्मलता और सबलता से कुछ बड़े बाबाओं का "शेयर" खा लिया है या उसी प्रक्रिया में हैं जिससे कईयों के पेट में दर्द और कलेजे में हुक सी उठने लगी होगी. क्योंकि निर्मल ने लोगों के लिए आसान सा फार्मूला डेवलप कर लिया है कि आप जितनी सरलता से चाहें आप पर "किरपा" हो जायेगी बस शुल्क अदा करते रहो. अगर आपको समोसे चटनी से "किरपा" चाहिए तो मिलेगी अगर सैंडविच खाना है तो खाइए और खिलाइए गली वाले भगवान को दो लड्डू चढा दीजिए जरुरी नहीं कि आप बद्री नाथ जाइये या अमरनाथ के दर्शन करें मात्र दो हजार रूपये की शुल्क अदा कर बीस हजार तो बच ही जायेंगे सात इ परम्परागत पाखंडियों द्वारा सुझाया गया कष्टसाध्य तरीकों से भी मुक्ति कहीं नहीं जाना है किरपा के लिए सब आपके हाथ है चढावा केवल मन्दिर में ना जाये उसे निर्मल दरबार में भेजा जाये किसी भी रूप में. यहीं वो आसान तरीके हैं जिनके कारण तमाम भूखे भौतिकवादी अपनी तनख्वाह बढ़वाने, नौकरियों में प्रोन्नत होने, व्यापार में सफल होकर "अम्बानी" बनने और कुछ अपने बच्चों को आई.आई.टी और अच्छे संस्थानों में नामांकन हेतु भी किरपा लेने आते हैं, निर्मल का क्या दोष वो बेचारा तो खुद ही सारा कर्म कर चुका है लेकिन चांदी नहीं काट पाया तो खुद ही उसने आसान रास्ता खुद के लिए भी और गैरों के लिए भी काल्पनिक रूप से इजाद कर लिया और करोड़ों का मालिक कुछ ही सालों में ..
                                                        निर्मल के लगभग सारे भक्त ही शिक्षित और मध्यवर्गीय लगते हैं अस्सी फीसद गरीब तो बीस रूपये रोज कमाने वाले हैं तो वो बेचारे कहां से दो हजार देंगे, तो क्या ये लालची लोग भी उसी तरह दोषी नहीं हैं जैसे घूस देने वाले भी होते हैं या डिस्क्लेमर लगा के निर्मल का विज्ञापन चलाने वाले. प्रायः निर्मल दरबार में कोई किशोरवय या बच्चा नहीं दिखता सभी युवा या प्रोढ लोग हैं सोचिये जरा जो लोग आई.आई.टी या आई.आई.एम की किरपा लेने आते हैं तो बड़े-बड़े कोचिंग चलाने वालों पर क्या गुजरती होगी. क्या वे भी निर्मल को निर्बल बनने कि नहीं सोचंगे क्या ?     
                                                    निर्मल ने आध्यात्म को चाहने वालों के हिसाब से सरल बना दिया केवल एक निश्चित शुल्क लेकर. निर्मल दरबार में जाने वाले गरीब भूखे नंगे लोग नहीं हैं सारे मिड्ल क्लास वाले लोग हैं जो धन-सम्पति और कभी ना समाप्त होने वाली सम्पन्नता माँगने आते हैं, वहाँ जाने वाला मोक्ष या आत्मिक शांति की चाह नहीं रखता सभी माँग "दो" और "लो" पर आधारित है, निर्मल ने सभी कष्टों का सरलीकरण कर दिया रंगों से, चटनियों से, दैनिक कार्यों से लोगों की औकात और क्षमता के हिसाब से. लोगों को लगता होगा कि हमें बीस-पच्चीस हजार लगाकर कहीं किसी तीर्थ यात्रा पर जाने कि आवश्यकता नहीं ना ही कोई पत्थर या हीरा पहनने की. जब हमारे साधना का आधार ही केवल भौतिक सुख, और लालसा के लिए है तो कोई चतुर आदमी तो इसका फायदा उठाएगा ही.
                   यह किसी तरह क्षम्य नहीं है, लेकिन यह भी है कि वहाँ भूखे पेट मरने वाला कोई नहीं आता, भरे -पूरे लोग आते हैं आखिर कई सारे पाखंडी सभी चैनलों पर आते हैं क्या वे "साइअन्टिफिक टेम्परामेंट" विकसित कर रहे हैं .नहीं बिल्कुल नहीं. ऐसे ही सैकड़ों "बाबावाद" के कारण दर्जनों चैनलों की दुकानें चाल रही हैं. इसे बंद किये जाने कि जरुरत है. तभी देश में वैधानिक और संवैधानिक उदेश्यों की पूर्ति होगी. 
                               
                                                              

Saturday 17 March 2012

मोतिहारी फिर आन्दोलित

क्षेत्रीय छत्रपों में सबसे अलग छवि वाले नेता नीतीश कुमार  की केंद्र से कुछ अलग तरह की झड़प होती रहती है जिसमे इन दिनों सबसे महत्वपूर्ण बना हुआ है केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल से मोतिहारी में केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना. जिसमे वो सब कुछ शामिल है जो आजादी के बाद से ही बार-बार देशवासियों विशेषकर बिहारवासियों को मथता रहा है  चाहे केन्द्र राज्य संबंध हों या समावेशी विकास की बात.  वैसे बिहार ही क्यों पूरे देश में ही समावेशी विकास के दर्शन नहीं होते जिस कारण जनता का एक बड़ा हिस्सा प्रवासी बनने को मजबूर है, भले ही नीतीश भी ये कहें कि प्रवास करना बिहारवासियों के  स्वाभाव के कारण है. मुझे लगता है ये मजबूरी ज्यादा है . नीतीश और केंद्र में केंद्र राज्य संबंध से लेकर समावेशी विकास तक की बातें और नोक-झोंक सब कुछ शामिल है, नीतीश आते -जाते केंद्र को चिढ़ाने से लेकर उलाहने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देते.
                                             एक बात का जिक्र करना यहाँ उचित होगा कि मोतिहारी बिहार के पूर्वी चम्पारण का जिला मुख्यालय है जहाँ से महात्मागांधी ने स्वतंत्रता संघर्ष की शुरुआत की थी. बुनियादी शिक्षा की अवधारणा को यहीं जमीन पर उतारा था, जहाँ विश्वविद्यालय से पहले हवाई अड्डे की जरुरत बताई जा रही है. वैसे सुनने में तो यहाँ तक आ रहा है कि केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने हवाई अड्डा ना होना भी एक कारण बताया है सेंट्रल यूनिवर्सिटी की स्वीकृति पर विचार नहीं करने का, वैसे ये तर्कपूर्ण कारण नहीं हो सकता.
                                                        मुझे लगता है कि विश्वविद्यालय का काम मानव संसाधन को बढ़ाना है जहाँ शैक्षणिक योग्यता कम है अगर वहाँ शैक्षणिक संस्थाओं को बढ़ावा देंगे तो उसमे बढोतरी कई गुना हो सकती है परन्तु अगर विकसित स्थान पर ऐसे बड़े संस्थानों को प्रतिष्ठित किया जाता है तो उस संस्थान कि उत्पादकता कम होगी, साथ ही पलायन की समस्या से भी स्थानीय समाज को दो चार होना पड़ता है, आज पलायन इन्ही नीतियों का एक बहुत बुरा परिणाम है जो हम सबके सामने है. हमारे संस्थानों और इसके हुक्मरानों को ये नहीं भूलना चाहिय कि असंतुलित विकास काफी सारी समस्याओं को पैदा करती हैं जो समाज और व्यवस्था दोनों के लिए उथल-पुथल का कारण बनती हैं. वैसे मोतिहारी का अपना ऐतिहासिक महत्व काफी है क्योंकि महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आन्दोलन कि शुरुआत के लिए इसी जगह को चुना था तब कभी ये स्थान राजेन्द्र बाबु, जे. बी. कृपलानी के साथ-साथ कई अन्य राष्ट्रीय नेताओं की प्रशिक्षण स्थली के रूप में प्रख्यात हुआ था. तो अब वहाँ एक अदद विश्वविद्यालय क्यों नहीं बन सकता .                                                                     भारत पर लगभग दो शताब्दियों तक राज करने वाले अंग्रेज भी कभी-कभी स्थानीयता को महत्व दिया करते थे तो हम क्यों नहीं दे सकते, हमें तो देश में ऐसी भावना का संचार करनी चाहिए कि लगे कि व्यवस्था सबके लिए काम करती है ना कि किसी विशेष स्थान के लिए. आज आई.आई.टी रुड़की सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में सिरमौर बना हुआ है जिसकी शुरुआत स्थानीय युवकों को प्रशिक्षित करने के लिए शुरू कि गयी थी ताकि वे लोक निर्माण के कार्यों में सहयोग कर सकें विशेष रूप से गंगा नहर के रखरखाव सहित इन्ही तरह के अन्य परियोजनाओं में सहायता करने के लिए. आरम्भ में ये थॉमसन कॉलेज ऑफ इंजिनियरिंग के नाम से चलता रहा जो बाद में रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज और अब रुड़की आई.आई.टी है जो सिविल इंजीनियरिंग हेतु एक बड़ा प्लेटफार्म है.
                                                                       मोतिहारी आज ऐसे युवाओं का जमघट बन गया है जहाँ चुटकी बजाते कर्मचारी चयन आयोग, बैक पी.ओ जैसी नौकरियों पर अपना दावा जमा लेते हैं यहाँ तक कि अमिताभ बच्चन के करोड़पति कार्यक्रम को भी अपनी क्षमता दिखा देते हैं लेकिन विश्वविद्यालय के नाम पर उन्हें दिल्ली, महाराष्ट्र, और दक्षिण भारत का मूंह देखना पड़ता है. अनचाहे रूप से बिहार का बहुत सारा पैसा बिहार से बाहर चला जाता है मोटी फीस और कमरा किराया के नाम पर. सचमुच उत्साहियों कि एक मुख्य स्थली है मोतिहारी. लेकिन सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं, एडमिशन और इसके चक्कर में ही काफी सारी उर्जा खर्च होती है यहाँ के छात्रों की. एक मुख्य कारण ये भी है कि लगभग नब्बे के दशक से ही यहाँ के शासक और प्रशासक दोनों अपने बच्चों को पढाने के लिए बाहर का रुख करने लगे और साधारण जनता हाशिए पर चली गयी, उन लोगों ने अपनी प्रतिष्ठा तो समाज में बना ली लेकिन बिहार की प्रतिष्ठा जाती रही. शायद ऐसी स्थापनाएं धीरे-धीरे इस दाग को धो पाए.
                                                                       मुझे लगता है दूसरी हरित क्रांति कैसे हो इसके लिए प्रशिक्षित मानव संसाधन की जरुरत होगी जिसे इस संभावित विश्वविद्यालय से और भी ज्यादा बढ़ाया जा सकता है स्थानीयता को महत्व देकर और अनुसंधान और विकास को आगे बढ़ाकर.  वैसे इसकी परिकल्पना बिहार के मुख्यमंत्री और लोगों के मन में घर करने लगा है.  हरित क्रांति पटना और दिल्ली से नहीं वरन ऐसी जगह से होगी जहाँ जमीन हो और काम करनेवाले लोग हों. मोतिहारी से बाहर जाने वाले हजारों लोगों के लिए ये सम्मान की बात होगी कि यहाँ एक बड़े संस्थान की स्थापना हो जिससे उन्हें बाहर जाने के झंझटों से मुक्ति मिल सके उन्हें प्रशिक्षण के लिए दूर ना जाना पड़े और स्थानीयता को महत्व मिल सके मोतिहारी के साथ बेतिया, बगहा, शिवहर सभी संबद्ध हैं शिक्षा की ढांचागत कमी से. कृषि यहाँ के लिए आशाओं के नए द्वार खोल सकती है फ़ूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री और संबद्ध व्यावसायिक प्रशिक्षण एक नए आकाश को खोल सकती है जिससे यहाँ के किसानों को फायदा होगा फल और सब्जी उत्पादन में भी इस जगह का कोई सानी नहीं है लेकिन बेहतर शिक्षा-दीक्षा के अभाव में सब बेकार है. कभी लालू प्रसाद ने सब्जियों को दिल्ली भिजवाने का असफल प्रयत्न किया था लेकिन मेट्रो वालों ने उन्हें सफल नहीं होने दिया.   
                                        कोई विश्वविद्यालय केवल शिक्षा के कुछ आयामों पर आधारित नहीं होता बल्कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को भी बढ़ाने में अपना योगदान देता है.जरुरत है एक नई सोच और दिशा कि ताकि महात्मा गांधी का चम्पारण जाना केवल आजादी की बात होकर ना रह जाये बल्कि वो असली आजादी में तब्दील हो सके जिसका विस्तार प्रत्येक गाँव और घर तक हो.  और आंदोलनरत मोतिहारी गया के बुद्ध सा शांत और प्रसन्नचित्त बना रहे.